उपराष्ट्रपति चुनाव 2025: बीजेडी ने मतदान से दूरी बनाई, ‘परामर्श न होने’ का मसला उठाया
सित॰, 10 2025
चुनाव का परिदृश्य और बीजेडी का फैसला
उपराष्ट्रपति चुनाव 2025 में बीजद (बीजू जनता दल) ने एक चौंकाने वाला कदम उठाते हुए मतदान से दूरी बना ली। 9 सितंबर को संसद भवन में हुए इस चुनाव में पार्टी के सातों राज्यसभा सांसद वोटिंग से अनुपस्थित रहे। मुकाबला एनडीए के उम्मीदवार सीपी राधाकृष्णन और विपक्ष के प्रत्याशी न्यायमूर्ति बी सुदर्शन रेड्डी के बीच था। दोपहर 3 बजे तक 96 फीसदी मतदान दर्ज हुआ, और प्रक्रिया गुप्त मतपत्र से चली—जैसा कि इस संवैधानिक पद के चुनाव में नियम है।
बीजेडी ने इसे सिद्धांत आधारित निर्णय बताकर कहा कि केंद्र ने ओडिशा से जुड़े मुद्दों पर पर्याप्त परामर्श नहीं किया। पार्टी के अनुसार आपदा राहत, तटीय सुरक्षा, खनिज रॉयल्टी, रेलवे व केंद्रीय योजनाओं में आवंटन—ऐसे विषयों पर राज्य की बात सुनी नहीं गई। यही वजह बताकर सांसदों ने वोटिंग से दूरी बनाई। राजनीतिक हलकों में यह कदम इसीलिए नोटिस में आया क्योंकि बीजेडी आम तौर पर राष्ट्रीय मामलों में व्यावहारिक रुख रखती है और कई बार मुद्दों पर सरकार व विपक्ष दोनों से अलग खड़ी दिखती रही है।
बीजेडी के सात वोट किसी भी चुनावी गणित में मामूली नहीं होते, मगर दोनों सदनों की कुल ताकत को देखते हुए परिणाम का झुकाव पहले ही साफ माना जा रहा था। संसदीय संख्या बल के हिसाब से एनडीए उम्मीदवार राधाकृष्णन की जीत की संभावना मजबूत बताई जाती रही। इसके बावजूद, बीजेडी का दूर रहना उस राजनीतिक संदेश के लिए अहम है जो यह केंद्र और राज्य—दोनों दिशाओं में भेजता है।
यह चुनाव उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के 21 जुलाई 2025 को स्वास्थ्य कारणों से इस्तीफा देने के बाद कराया गया। उपराष्ट्रपति राज्यसभा के पदेन सभापति होते हैं, इसलिए यह पद खाली रहना संसदीय कामकाज के लिहाज से संवेदनशील माना जाता है। उपराष्ट्रपति का चुनाव दोनों सदनों के निर्वाचित व मनोनीत सदस्यों द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व की एकल हस्तांतरणीय मत प्रणाली से होता है, और मतदान गुप्त रहता है। यही वजह है कि पार्टियां कई बार ‘विप व्हिप’ के बजाय राजनीतिक संदेश को प्राथमिकता देती हैं—बीजेडी का फैसला इसी खांचे में फिट बैठता दिखा।
बीजेडी अकेली नहीं थी। शिरोमणि अकाली दल (एसएडी) ने भी मतदान का बहिष्कार करते हुए पंजाब में बाढ़ पीड़ितों के लिए केंद्र की प्रतिक्रिया को अपर्याप्त बताया। भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) ने भी अपने चार सदस्यों के साथ मतदान से दूरी बनाई। ऐसे फैसले बताते हैं कि क्षेत्रीय पार्टियां इस चुनाव को सिर्फ पद की लड़ाई नहीं, बल्कि केंद्र-राज्य रिश्तों पर दबाव बनाने के मौके के रूप में भी देख रही हैं।
बीजेडी का यह रुख उसकी पुरानी रणनीति का नया संस्करण लगता है। 2022 में बीजेडी ने ओडिशा की बेटी द्रौपदी मुर्मू का समर्थन कर एनडीए के साथ खड़ी दिखी थी, वहीं कई विधायी मुद्दों पर उसने विपक्ष से भी तालमेल रखा। 2024 के बाद ओडिशा की सत्ता से बाहर होने के साथ पार्टी का फोकस स्वाभाविक रूप से ‘राज्य हित’ को और प्रमुखता देने पर है। ऐसे में राष्ट्रीय मंचों पर उसकी हर चाल को घर-घर तक भेजे जाने वाले संदेश के रूप में पढ़ा जा रहा है—खासकर उस वोटर के लिए जो अब बीजेडी को विपक्षी भूमिका में देख रहा है।
सवाल यह है कि इससे क्या बदलेगा? संसद की दृष्टि से देखें तो उपराष्ट्रपति के रूप में जो भी चुना जाएगा, वह राज्यसभा के कामकाज को सुचारु रखेगा—पेंडिंग विधेयकों, व्यवधान प्रबंधन और समिति रेफरल जैसे मुद्दों पर उसका रवैया अहम होगा। राजनीतिक दृष्टि से देखें तो बीजेडी ने अपने लिए बातचीत का स्पेस खुला रखा है—न तो वह किसी खांचे में कैद दिखना चाहती है, न ही राज्य हित के मुद्दों पर चुप बैठने का जोखिम लेना चाहती है।
बीजेडी के ‘परामर्श’ वाले तर्क के भीतर ठोस एजेंडा भी छिपा है। ओडिशा की तटीय पट्टी पर जलवायु से जुड़े खतरे, चक्रवातों के बाद पुनर्वास, खनिज संपदा पर रॉयल्टी और लाभांश, एमएसपी पर राज्य की मांगें, और केंद्रीय परियोजनाओं में वास्तविक प्रगति—ये सब ऐसे विषय हैं जिन पर दिल्ली से बेहतर समन्वय की मांग बार-बार उठती रही है। मतदान से दूरी बनाकर पार्टी ने इन मुद्दों को फिर सुर्खियों में ला दिया है।
असर, सियासी संदेश और आगे की तस्वीर
विश्लेषकों की नजर में यह फैसला तीन परतों में असर डाल सकता है—तुरंत, मध्यम और लंबी अवधि में। तुरंत असर यह कि बीजेडी ने सिग्नल दिया है: उसके समर्थन को अब ‘ऑटोमैटिक’ न समझा जाए। मध्यम अवधि में यह केंद्र से राज्य हित पर ठोस बैठकों, पैकेज या परियोजना-समीक्षा की मांग में बदलेगा। लंबी अवधि में—खासकर 2029 की तैयारी में—पार्टी अपने ‘दोनों से दूरी, राज्य के साथ नजदीकी’ वाले नैरेटिव को और धार दे सकती है।
- दबाव की राजनीति: मतदान से दूरी केंद्र को परामर्श-आधारित प्रक्रिया पर लौटने का संदेश है।
- बातचीत की गुंजाइश: किसी धड़े में औपचारिक शामिल हुए बिना, मुद्दों पर सौदेबाजी की गुंजाइश बनी रहती है।
- घरेलू संदेश: ओडिशा के मतदाताओं को संकेत—पार्टी दिल्ली में राज्य के सवालों पर सख्त रुख रखे हुए है।
एसएडी और बीआरएस का कदम भी इसी पैटर्न को मजबूत करता है। अलग-अलग राज्यों की शिकायतें अलग हो सकती हैं, पर राजनीतिक भाषा एक है—केंद्र से संवाद, जवाबदेही और समयबद्ध मदद। जब कई क्षेत्रीय दल एकसाथ ‘दूरी’ चुनते हैं, तो चुनावी नतीजे भले तय हों, लेकिन संघीय राजनीति का मूड बदलता जरूर है।
तकनीकी पहलू भी समझ लें। इस चुनाव में वोट ‘एकल हस्तांतरणीय’ होते हैं, यानी पसंदानुसार क्रम दिया जाता है और किसी उम्मीदवार को बहुमत न मिलने पर वोट ट्रांसफर होते हैं। ऐसे में हर अनुपस्थित सदस्य गणित बदल सकता है, पर कुल संख्या ज्यादा होने पर असर सीमित रह जाता है। बीजेडी का असर प्रतीकात्मक से आगे इसलिए गया क्योंकि पार्टी ने अनुपस्थित रहकर मुद्दों की सूची भी सामने कर दी।
अब नजर आगे पर है। क्या केंद्र बीजेडी से औपचारिक बातचीत की पहल करेगा? क्या एसएडी को पंजाब के लिए ठोस आश्वासन मिलेगा? बीआरएस जिन विषयों पर नाराज है, क्या उन पर कोई रोडमैप बनेगा? सत्रों के दौरान सहयोग, समिति चरण में बिलों पर समर्थन, और बजट-विनियोग में राज्य हिस्सेदारी—यहीं से अगली राजनीतिक कहानी लिखी जाएगी।
इस वक्त इतना साफ है कि बीजेडी ने एक सूखा-सा दिखने वाला प्रक्रियात्मक चुनाव भी अपने लिए राजनीतिक मंच बना लिया है। उन्होंने वोट नहीं डालकर भी अपनी बात बुलंद की है—और यही किसी भी क्षेत्रीय दल की वास्तविक ताकत होती है। दिल्ली अब कैसे जवाब देती है, उस पर आने वाले महीनों की सियासत टिकी रहेगी।
SUNIL PATEL
सितंबर 12, 2025 AT 07:15बीजेडी का ये बहिष्कार बिल्कुल बेकार का नाटक है। वोट न डालने से क्या बदलेगा? दिल्ली को ये दिखाने की कोशिश कर रहे हैं, पर ओडिशा के लोगों को तो बस राहत चाहिए, न कि राजनीति के नाटक।
Avdhoot Penkar
सितंबर 13, 2025 AT 03:40अरे भाई ये सब बकवास है 😒 वोट डालो या न डालो, बस अपना घर साफ रखो। राधाकृष्णन तो बहुत अच्छे हैं, वोट दे देते तो अच्छा होता।
Akshay Patel
सितंबर 14, 2025 AT 22:37ये राज्यवादी पार्टियां हमेशा अपनी छोटी-छोटी शिकायतों को राष्ट्रीय मंच पर बढ़ाती हैं। उपराष्ट्रपति चुनाव एक संवैधानिक प्रक्रिया है, न कि राज्य के बजट की बैठक। ये लोग दिल्ली को शिक्षा देने की कोशिश कर रहे हैं, पर खुद ओडिशा में तो बिजली-पानी की समस्या हल नहीं कर पाए।
Raveena Elizabeth Ravindran
सितंबर 16, 2025 AT 19:56ye sab kya bawasir hai? bjd ko to bas apne state ke liye sochna chahiye, par ye log har jagah apni baat lagane ki koshish karte hain. vote na daalne se kuch nahi hoga, bas noise badh jayega 😴
Krishnan Kannan
सितंबर 17, 2025 AT 19:43असली बात ये है कि ये चुनाव तो फॉर्मलिटी था, पर बीजेडी ने इसे एक मौका बना लिया। वोट न डालने से न सिर्फ संदेश गया, बल्कि बातचीत का दरवाजा भी खुल गया। अगर केंद्र वास्तविक रूप से राज्यों को सुनना चाहता है, तो ये बहिष्कार एक शांति से चेतावनी है।
Deepak Singh
सितंबर 18, 2025 AT 03:45क्या आप लोग इसे राजनीति समझ रहे हैं? ये तो संविधान की एक अनिवार्य प्रक्रिया है! जब आप चुनाव में भाग नहीं लेते, तो आप अपने अधिकार को त्याग रहे हैं। बीजेडी की ये रणनीति असंगठित, भावुक, और अनुत्तरदायी है।
Rajesh Sahu
सितंबर 18, 2025 AT 18:23अरे भाई! बीजेडी ने तो अपनी जान बचाने की कोशिश की है! अगर वो वोट देते, तो ओडिशा के लोग उन्हें ट्रेन से उतार देते! ये लोग अब तक नहीं समझ पाए कि राष्ट्रीय मंच पर राज्य की आवाज़ बनने के लिए, वोट डालना नहीं, बल्कि वोट न डालना ज़रूरी है! ये तो बहुत बड़ी बात है! 🤯
Chandu p
सितंबर 18, 2025 AT 21:55मैं ओडिशा से हूँ, और मैं बीजेडी को समझता हूँ। जब तक दिल्ली हमारी तटीय सुरक्षा और चक्रवात राहत पर ध्यान नहीं देगी, तब तक वोट डालना बेकार है। ये नाटक नहीं, जीवन है। 🙏
Gopal Mishra
सितंबर 20, 2025 AT 08:30इस तरह के फैसले बहुत कम ही होते हैं जो राजनीति के बुनियादी नियमों को बदल दें। बीजेडी ने यहाँ केवल एक वोट नहीं छोड़ा - उसने एक नया मानक स्थापित किया: कि राज्य के हित के लिए, एक वोट भी बहुत बड़ा इशारा हो सकता है। यह तकनीकी रूप से असर नहीं डालता, लेकिन राजनीतिक रूप से इसका असर आने वाले दशकों तक रहेगा। ये नहीं कि वो बहिष्कार कर रहे हैं - ये तो बातचीत की ओर बढ़ रहे हैं।
Swami Saishiva
सितंबर 20, 2025 AT 18:04ये सब बकवास है। बीजेडी बस अपनी राजनीति के लिए नाटक कर रही है। ओडिशा में तो अब बिजली नहीं, बल्कि इमेज भी नहीं है। इन्होंने वोट नहीं डाला, तो क्या बाढ़ के बाद घर बनेंगे? ये लोग तो बस ट्विटर पर फेमस बनना चाहते हैं।